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बात उन दिनों की है जब समाज में इंसानो की संख्या ठीक ठाक हुवा करती थी,लोगो के पास वक्त था एक दूसरे को सुनने का|आप सोच रहे होंगे की मै क्या दूसरे ग्रह से आया हूँ,ऐसे बात कर रहा हूँ जैसे मैं सब जानता हूँ| नही मै सब नही जानता पर इतना ज़रूर जानता हूँ की आज कुछ तो कमी है जीवन में, कुछ तो है जो हमे पूर्ण नही होने दे रहा.(ka bhaiya ka haal chaal hai.?)आखिरी बार आप ने किससे पूछा था या आप से किसने पूछा था, चलो नही पूछा, आप बताओ अपने पुरे परिवार के साथ चाय कब- कब पीते हो,क्या आप ने खुद को ठीक से देखा है,नहीं…. तो सुनो एक कहानी,,
कही दूर एक गांव था जो हरे हरे खेतों के बीच किसी द्वीप जैसा दिखता था,गांव के द्वार पर खड़ा था एक बूढ़ा पीपल, जो कुछ बोलता नहीं था,बस मुँह फुलाए देखता रहता था हर आने जाने वाले को| पता सब था पर उसे क्या पड़ी थी किसी की बुराई करे या तारीफ करे| पीपल के पास था गुड़ बनाने वाला कोल्हू,सर्र्दियो में क्या महक आती थी,मुझे मीठा कुछ खास पसंद नहीं पर उस गुड़ की मिठास अभी भी है जुबान पर| वही सामने ही तो था स्कूल| स्कूल तक में भर जाती थी महक,हल्का कोहरा जिसमे से गुड़ की भट्टि का धुवा अलग कर पाना कठिन था,स्कूल से कमीरा बाबा(पीपल) भी तो साफ नही दीखते थे|.हाँ अगर कोई अलाव जलाता तो लाल पीली रोशनी दिखती थी और उसके पास बैठा दीखता था इन्शान | सर पर बड़ा सा पग्गड़,लिहाफ़ लपेटे,घुटनों तक धोती बांधे इन्शान.हुक्के में अलाव से आग निकल कर भरते हुए कुछ गुनगुना रहा था..(उठाऊ ाल बेलि बाहरि लाओ अँगना).इतना शांत था सब कुछ की उसकी गवई साफ सुनाई दे रही थी, अभी भी जब शांत होता हूँ तो सुनाई देती है,उसकी गवई.बाहर जाकर भी देखते हूँ पर भीड़ के सिवा कुछ नही दीखता न अलाव न ईशान,न गुड़ की महक न कमीरा बाबा,कुछ भी नही दीखता.बथुवा और उरद की दाल(सागपाहिता) और चावल उसी अलाव के पास बैठ कर खाता था इन्शान और उसके बच्चे जो अब मशीनों में बदल गए है,,क्या स्वाद था.खैर स्वाद तजे गुड़ का हो या सागपाहिता चावल का काफी पीछे छूट गया| उस इंसान के गांव में कोई बड़ा होता तो उसकी उम्र से न कि दिखावे से| सम्मान और लिहाज कुतररक से बचा लेते थे, दूबर(तांगे वाला) के टंगे की छन छन पहले ही बता देती कि गांव में किसी के घर मेहमान आये है,मेहमान एक के घर एते खुस पूरा गांव होता, जब तक मेहमान रहते तो रोज किसी के घर से मूँगफली भुन कर आती तो किसी के घर से आलू,कोई उन्हें खेत घुमाने ले जाता तो कोई मछलियों के शिकार पर| भले कोई एक दिन के लिए आये या तमाम दिनों के लिए, एक बार यह जरूर बोलता..(शहर जाना मजबूरी न होती तो इधर ही रह जाते) जब मेहमान जाते तो सियाराम,सलीम बडको मंझीलो जैसे तमाम लोग बाहर तक छोड़ने जाते,भैया फिर ायो जरूर,दुल्हिन कायः हमार नमस्ते कहि देहो जैसे बातो से माहौल ऐसा होता कि कमीरा बाबा भी उदास हो जाते.लाठी के सहारे खड़ा इन्शान हुक्का पीने का ऐसा नाटक करता जैसे उसे फर्क नहीं पड़ा हो,… फर्क तो पड़ता है साहब,कहो या न कहो,आज घर में चाहे जितना बड़ा टीवी हो वो मजा नहीं आता जो तब अत था,रंगोली चित्रहार,रामायण महाभारत,और उनसे जुड़े गांव वालो के अबोध सवाल,कितना सरल था
(सावन आवा भादों ावा,गुडइयक बाप बोलावइ अवा,लंबी लंबी लैया लावा,खोखला बताशा लावा,चार टेक का लेहहनगा लावा,लेहंगा है उतंग,भउजी नाचे दनदंन….) झूले पर ये लाइने बहुत सुनाई पड़ती थी,झूले पर पेंग मार कर पात्र खड़ा करने में ही दुनिया के सारे पुरस्कार मिल जाते थे. जिनका बचपन गाँव में बीता है वो जानते होंगे की बचपन जिन्दा होता है, ज़िंदा से मेरा आशय उंन्मूक्त और मासूमियत से है| बात अगर बचपन की चली है तो कुछ बाते आप से साझा किये बगैर रहा नहीं जा रहा.. लच्छी,पक्की पलहोर,ऊंचा नीचा गिलाश,गिट्टी फोड़,सुर बग्घी, गुल्ली डंडा खेले हो, कहे नहीं खेले होंगे ये तो वो खेल थे जिनके नाम हुवा करते थे कुछ खेल तो बिना नाम के थे,बिना ग्र्रामार के थे,बस खेले जाते थे |हो सकता है कि तथा कथित सभ्य लोग इसे सही न माने पर वो था मजेदार,जब सारे बच्चे स्कूल में एक साथ चिल्लाते थे…..
ग्यारा बजिगा,12 बजिगा,घडी माँ बजिगा एक,
मास्टर साहब छुट्टी दैदेव भुखन मरिगवा पेट…
गए तो होंगे गुरु,कहो चाहे जो | बन्दर को भी लुलुहाए होगे, (लुलुहाए)नही समझे,लुलुहाए मतलब किसी को चिढ़ाने या छेड़ना,हाँ तो बताओ नही चिड़ाये हो….
अले बंदरवा भता रोटी,
तोरे बाप की लंम्बी धोती..
आज जानते है की ये बिना मतलब है पर कल तक ये ज़रूरी काम था| जबसे समझदार हुए है न तभी से कही के नहीं रहे,वरना अपने दिल के तो राजा ही थे | बचपन आप की ज़िन्दगी का सबसे खूबसूरत हिस्सा होता है,उसके बाद तो सब चुतियापा है.| उम्र कितनी भी हो आप की जो बचपन में जी ली वहि जी ली बाकि सब कोका बेलि | बचपन का एक और मजेदार हिस्सा होता है सुताई अरे मतलब पिटाई,पीटे गए हो कभी?..हम तो रोजै पीटे गए है.इधर मार खाओ उधर फिर तैयार| आम,अमरुद की चोरी,ट्र्राली से गन्ना खीच के खाने में जो स्वाद है वो आज १० रु गिलास में आता ही नहीं|,स्कूल के बस्ते में किताब से ज्यादा मौर्या के खेत से नोचि गई सौफ,चुराए गए अमरुद,कंचे, ही होते थे भाई सब इतना जोरदार बचपन था हमरा जिसकी कोई मिसाल ही नहीं,,जब भी बचपन की बात चलती है तो जी करता है कि वापस बच्चा हो जाऊ,………………………..ASHISH MOHAN
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